हिन्दुस्तान टाइम्सको हिन्दी संस्करण (१५ जुलाई, २०१४) बाट
नेपाल में राजनीतिक स्थिरता और उसका आर्थिक विकास, दोनों भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, खासकर नेपाल से लगे इसके दो प्रदेशों- उत्तर प्रदेश और बिहार के सुख-चैन इससे खासा प्रभावित होते हैं। भारत के नए राजनीतिक नेतृत्व के लिए यह निहायत जरूरी है कि वह नेपाल के साथ रिश्तों पर ध्यान दे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टीम को इस दिशा में तत्काल सक्रिय होना चाहिए और काठमांडू में संघीय प्रणाली को लेकर छिड़ी बहस से जुड़ना चाहिए। इस बहस में नेपाल में जो प्रस्तावित किया जा रहा है और भारतीय वार्ताकारों के जो सुझाव हैं, वे किसी भी पक्ष के हित में नहीं हैं। उनके भी नहीं, जो दोनों तरफ के सीमावर्ती मैदानी इलाकों के बाशिंदे हैं।
साल 2007 में नेपाल के अंतरिम संविधान ने इसे संघीय गणराज्य घोषित किया था, लेकिन राज्यों का खाका खींचने का काम संविधान सभा पर छोड़ दिया था। चार वर्षो की कोशिशों के बाद आखिरकार संविधान सभा साल 2012 में धराशायी हो गई और इसके मूल में संघीय स्वरूप को लेकर पैदा हुई कटुता ही थी। पिछले वर्ष नवंबर में हुए चुनावों के बाद यह दूसरी संविधान सभा अस्तित्व में है और अब भी संघीय स्वरूप का निर्धारण ही बहस का केंद्र है। जिस तरीके से राज्यों का गठन होगा, उनसे ही यह तय होगा कि संतुलित विकास के लायक स्थितियां होंगी या फिर ऐसे राज्य गठित होंगे, जिनके तहत कुलीन तबके को फायदा होगा तथा वंचित लोग और अशक्त कर दिए जाएंगे।
नेपाल के संघीये ढांचे को लेकर दो तरह के विचार आमने-सामने हैं। एक तरफ वे लोग हैं, जो आर्थिक भूगोल के आधार पर राज्य गठित करने की मांग कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो पहचान के आधार पर राज्यों का खाका खींचने की बात कर रहे हैं। पहले समूह के लोगों का तर्क है कि पहाड़ और मैदान, दोनों को मिलाकर राज्यों की रूपरेखा तय की जाए, ताकि उनमें आर्थिक सहयोग बढ़े और उनका समुचित विकास हो। दूसरी तरफ जातीय (जनजाति) और मधेसी समुदाय के कार्यकर्ताओं (तराई के लोगों) का कहना है कि केवल पहचान पर आधारित संघीय ढांचा ही उन्हें काठमांडू की सत्ताधारी जातियों और वर्गो के ऐतिहासिक चंगुल से मुक्ति दिलाएगा। नेपाल के लोग इस मसले को खुद ही सुलझा लेते, मगर बीजिंग और नई दिल्ली के इसमें कूद पड़ने से यह मसला और उलझ गया है। बीजिंग यह साफ कर चुका है कि वह पहाड़ी इलाकों में जातीय पहचान पर आधारित राज्यों के गठन के पक्ष में नहीं है, शायद चीन तिब्बत में फैली जातीय राजनीति से चिंतित है।दूसरी तरफ, भारत की प्राथमिकता ‘एक मधेसी प्रदेश’ की है। एक मैदानी राज्य के पक्ष में उठी लोकप्रिय मांग को देखते हुए मधेसी समुदाय के संशयवादी भी अब खामोश हो गए हैं।
न तो चीन ने और न ही भारत ने नेपाल के संघीय ढांचे पर अपना पुराना रुख बदला है, जबकि नवंबर 2013 के चुनाव के बाद नेपाल की जमीनी सच्चई बदल चुकी है। नेपाली मतदाता अपने वोट के जरिये आर्थिक भूगोल पर आधारित राज्यों की रूपरेखा के पक्ष में अपनी राय जाहिर कर चुके हैं और इसीलिए उन्होंने नेपाली कांग्रेस और सीपीएन (यूएमएल) को नई संविधान सभा में दो-तिहाई सीटें दीं। माओवादी और मधेसीवादी पार्टियों और पहचान आधारित सूबों के पक्षधरों को उन्होंने इस चुनाव में परास्त कर दिया।
नेपाल के मधेसी नागरिकों को लंबे समय से बोझ समझा जाता रहा है। वे न सिर्फ सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिये पर धकेले जाते रहे, बल्कि काठमांडू में मान्य पहाड़ केंद्रित ‘पहाड़िया’ पहचान से भी वे बेदखल किए गए। ऐसे में, साल 2007 की जनवरी-फरवरी में स्वत:स्फूर्त मधेस आंदोलन एक निर्णायक मोड़ के रूप में सामने आया और इस आंदोलन ने यह सुनिश्चित किया कि काठमांडू व देश के दूसरे हिस्सों में भी मैदान के लोग बराबर सम्मान के हकदार हैं। पहाड़ और मैदान को मिलाकर ही एक नेपाल की समझ विकसित होने लगी। ऐसे में, सवाल यह उठता है कि ऐतिहासिक विलगाव के आधार पर नेपाल के संघीय स्वरूप का ढांचा तैयार होना चाहिए या फिर पूर्व में उपेक्षित समुदायों की समृद्धि को पक्का करने के लक्ष्य के आधार पर? पहचान के आधार पर राज्यों के गठन की मांग ने संघ के स्वरूप की बहस को तराई क्षेत्र के राज्यों पर केंद्रित कर दिया है।
नेपाल में सबसे अधिक गरीबी और शोषण मधेस नागरिकों के बीच ही है और संघ को उनकी राजनीतिक और आर्थिक मुक्ति का वचन देना ही चाहिए। मेरा मानना है कि एक ही सूबे के नागरिक के तौर पर मैदान के लोगों की भी पहाड़ के संसाधनों तक स्वाभाविक पहुंच होनी चाहिए। तराई के इलाके मूलत: कृषि पर निर्भर हैं, यहां औद्योगीकरण की अपार संभावनाएं हैं। केवल खेती से तराई के गरीबों का जीवन-स्तर नहीं सुधर सकता। ये गरीब मधेसी काठमांडू के साथ-साथ मैदानी सामंतों की उपेक्षा के शिकार रहे हैं। इसलिए हमें पहाड़ों की उदार सहायता का यह वादा भी सुनिश्चित करना पड़ेगा कि कृषि-वानिकी, पर्यटन, पनबिजली, सेवा-उद्योग, जल प्रबंधन और सिंचाई आदि पर मैदान के लोगों का भी हक है।
अलग तराई प्रदेश के विचार का पहाड़िया नेताओं द्वारा जोरदार विरोध न किए जाने से भी संदेह होता है। यदि पहाड़ों की प्राकृतिक संपदा तराई की विशाल और गरीब आबादी के साथ साझा नहीं की गई, तो उन पर सिर्फ पहाड़ी सूबों का एकाधिकार होगा। जहां तक अलग तराई प्रदेश में भारत की दिलचस्पी का सवाल है, तो इसके पीछे उसकी अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता हो सकती है। वह शायद चाहता है कि इस तरह उसकी खुली सीमा के साथ एक बफर क्षेत्र बन जाए। लेकिन बेहतर विकल्प यह है कि भारत में उग्रवादियों की घुसपैठ को रोकने के लिए नेपाल से अधिक सहयोग मांगा जाए। इस लिहाज से मौजूदा व्यवस्था से अधिक कारगर प्रत्यर्पण संधि होगी। यदि इसके पीछे नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को (यदि वह है) रोकना है, तो बफर क्षेत्र का यह विचार कारगर साबित नहीं होगा, क्योंकि चुरे/ शिवालिक पहाड़ियों की तरफ से चीन का वह प्रभाव आ सकता है।
साफ है, नेपाल में संघीय ढांचे को लेकर जारी बहस में भू-राजनीतिक, राजनीतिक-आर्थिक और सामुदायिक पहलुओं के साथ न्याय नहीं हो रहा। इस मसले पर दिल्ली, लखनऊ और पटना की सिविल सोसायटी, अकादमिक क्षेत्र और राजनीतिक तबके में किसी प्रकार की खुली बहस न होने के घातक निष्कर्ष निकल सकते हैं। एक समृद्ध तराई नेपाल के लिए तो अच्छा है ही, इससे उत्तरी बिहार और उत्तर प्रदेश को भी आर्थिक संबल मिलेगा। मगर यदि नेपाल के संघीय ढांचे को गढ़ने में कोई चूक हुई, तो इसकी कीमत दोनों देशों के लोगों और समाज को चुकानी पड़ेगी।