सबके हक में नेपाल की स्थिरता

हिन्दुस्तान टाइम्सको हिन्दी संस्करण (१५ मार्च, २०१५) बाट

इस महीने की शुरुआत में नई दिल्ली की अपनी यात्रा के दौरान नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री और माओवादी विचारक बाबुराम भट्टराई ने भारत के सत्ता-वर्ग के आगे जो कुछ कहा,  उसे देख-सुनकर कोई भी अचरज में पड़ जाएगा कि यह ‘वैकल्पिक राजनीति’ के एक उपासक की अति-विवेकपूर्ण व्याख्या है या एक राजनेता का दोषपूर्ण विचार? आखिर वह ऐसे बयान क्यों दे रहे थे, जिनसे पड़ोसी देश के नेताओं की खुशामद, और अपने देश के साथियों की निंदात्मक ध्वनि निकल रही थी? भट्टराई ने शायद यह सोचा होगा कि इसकी वजह से काठमांडू में मिलने वाली अलोकप्रियता की भरपायी वह नई दिल्ली में हासिल नंबरों से कर लेंगे। वैसे उम्मीद तो यही है कि बाबुराम भट्टराई जिन बातों का श्रेय भारत को देते हुए लग रहे थे, उनके संदर्भ में नेपाल की जनता की राय और उसके राजनीतिक रुझानों के साथ-साथ अपने भू-राजनीतिक हितों को लेकर नई दिल्ली कहीं अधिक चौकस होगी।

वैसे भी,  बाबुराम भट्टराई के बारे में हम सभी जानते हैं कि यह वही भट्टराई हैं, जिन्होंने उस 40 सूत्री समझौते का मसौदा तैयार किया था, जिसने भारत-विरोधी भावनाओं से भरे माओवादियों को 1996 में भूमिगत होने का रास्ता तैयार किया। यह वही भट्टराई हैं, जिन्होंने खमेरूज की बर्बरता को पश्चिम की मनगढ़ंत कहानी बताया था। यही वही भट्टराई हैं, जिन्होंने मासूम लोगों के कत्ल के आरोपियों के खिलाफ दायर मुकदमों को खत्म करने के आदेश दिए थे। इन्होंने ही उस माओवादी ‘संविधान’ रचा व वितरित किया था, जिसमें एक पार्टी शासन-व्यवस्था की वकालत की गई थी। बहरहाल,  मौजूदा परिदृश्य पर लौटते हैं। सवाल यह है कि जब 28 फरवरी को माओवादी-मधेसवादी रैली होने जा रही थी,  तब बाबुराम भट्टराई को उसी वक्त नई दिल्ली जाने का ख्याल क्यों आया? आखिर उसके बाद भी विमान नई दिल्ली के लिए उड़ान भरने ही वाले थे। दरअसल,  इसका सीधा-सा मतलब यही था कि इस रैली को नाकाम बनाया जाए और इसमें भाग लेने वालों को रोका जाए। नई दिल्ली में उन्होंने जितने भी इंटरव्यू दिए, उनके मूल में बस एक ही संदेश था कि नवंबर 2013 के चुनाव में सत्ता पाने वालों ने नेपाली ‘आंदोलन’ को अगवा कर लिया है। उस चुनाव के नतीजे तो महज वोटों की गिनती भर थे, और हाउस में करीब दो-तिहाई बहुमत वाली सीपीएन-यूएमएल पार्टी दरअसल लोगों के जनादेश का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। भट्टराई ने नई दिल्ली में और भी कई चौंकाने वाली बातें कीं। उन्होंने चीन और माओ से अपने को अलग करते हुए नक्सली होने का लेबल यूएमएल के ऊपर चस्पां करने की कोशिश की और प्रधानमंत्री सुशील कोइराला व यूएमएल के मुखिया केपी ओली पर भी कई आरोप जड़े।

बाबुराम ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अपने राजनीतिक आचरण में विनम्रता बरतने की नसीहत भी दे डाली। यही नहीं, उन्होंने लगे हाथ राजनीति में ‘बाहुबल, धनबल और मीडिया’ के इस्तेमाल के खिलाफ आगाह भी किया। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री ने अपनी इस दलील को बार-बार दोहराने की कोशिश की कि प्रतिक्रियावादी ताकतों ने प्रगतिशील बदलाव के हिमायती लोगों से एजेंडा हथिया लिया है। उन्होंने कई विरोधाभासी बातें कहीं, बल्कि नई दिल्ली की सत्ता में बैठे मौजूदा लोगों को खुश करने के इरादे से भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ अपने संपर्क की बात बताने की भी कोशिश की, जबकि वास्तव में उस दौरान भट्टराई भूमिगत थे। इसमें कोई दोराय नहीं कि बाबुराम भट्टराई एक बार फिर यूसीपीएन (माओवादी) चेयरमैन पुष्प कमल दहल की हैसियत हड़पना चाहते हैं। राजनीति में दहल की लगातार कमजोर पड़ती स्थिति को देखते हुए बाबुराम भट्टराई का सपना पूरा भी हो सकता है, मगर सवाल यह है कि आखिर भट्टराई किस तरह की (और कितनी बड़ी) पार्टी की कमान संभालना चाहते हैं? वैसे, उनके पास बाहर निकलने की एक रणनीति तो है ही।

केजरीवाल की ‘आप’ की तरह वह नेपाल में ‘वैकल्पिक ताकत’ खड़ा करने की योजना बना सकते हैं। उम्मीद है कि भारत भट्टराई की बातों के खतरों से भली-भांति वाकिफ होगा। क्योंकि नेपानी पूर्व प्रधानमंत्री के पास जो रेसिपी है, उससे नेपाली समाज में ध्रुवीकरण और तेज होगा। इसके परिणामस्वरूप दूसरी संविधान सभा जमींदोज हो जाएगी या फिर एक ऐसा संविधान रच दिया जाएगा, जिसमें कलह के ढेर सारे बीज भी होंगे। लेकिन इस दूसरी संविधान सभा की नाकामी से पूरे दक्षिण एशिया की स्थिरता और विकास को गहरा धक्का लगेगा और लंबी अवधि में न सिर्फ नेपाल का नुकसान होगा, बल्कि उत्तर प्रदेश और बिहार को भी क्षति पहुंचेगी। यही नहीं, हर तरह के कट्टरवाद को खुलकर खेलने का मौका मिल जाएगा। नई दिल्ली के नीति-नियंताओं को रिझाने की भट्टराई की कवायद दरअसल 2005 के उस 12 सूत्री करार से नई दिल्ली को बांधने से अधिक जुड़ी है, जिनके कारण माओवादियों को भूमिगत स्थिति से उबरने में मदद मिली थी। लेकिन उस समझौते में नेपाली कांग्रेस और यूएमएल सरीखी पार्टियां भी शामिल थीं और उनके नजरिये को भी बराबर अहमियत मिलनी चाहिए। फिर, तथ्य यह भी है कि माओवादी 2005 से अब तक कितने ही खंडों में बंट चुके हैं, इसलिए भट्टराई सबकी नुमाइंदगी का दावा भी नहीं कर सकते।

इसके अलावा, मधेसी मोर्चा में शामिल पार्टियों की उस समझौते में कोई भूमिका नहीं थी, जबकि आज के नीति-निर्धारण में उनका स्पष्ट रोल है। इस आधार पर भी 2005 का वह समझौता अप्रासंगिक हो जाता है। बाबुराम भट्टराई की नई दिल्ली से सबसे बड़ी गुजारिश यही थी कि भारत शांति-प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाए। लेकिन 12 सूत्री समझौते के लक्ष्यों की दिशा में पहले ही कदम उठाए जा चुके हैं। अलबत्ता, एक अवसरवादी रवैया अख्तियार करते हुए भट्टराई अब यह दावा करना चाहते हैं कि शांति-प्रक्रिया तब तक पूरी नहीं होगी, जब तक कि ‘ट्रथ ऐंड रिकॉन्सिलिएशन कमीशन’ द्वारा सभी आरोपियों के मामलों को नहीं निपटाया जाता। जाहिर है, यह फॉर्मूला नेपाल को लंबे वक्त तक अस्थिरता के भंवर में फंसा देगा और दूसरी संविधान सभा अप्रासंगिक हो जाएगी।

वास्तव में, बाबुराम भट्टराई इस समय संविधान निर्माण की राह के सबसे बड़े बाधक प्रतीत हो रहे हैं। उनका रवैया संविधान सभा के खिलाफ है। खासकर उनका ध्यान संघवाद और प्रांतीय सीमाओं के निर्धारण को लेकर सहमति के फॉर्मूले को बाधित करने पर है। जिस तरह से वह रुकावटें डाल रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि नेपाल की जनता को अपना संविधान खुद लिखने का जो मौका हासिल हुआ है, उसे निर्थक बनाने के लिए वह कुछ अतिरिक्त ही श्रम कर रहे हैं।

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